किसी बड़े नगर के बाहर बहुत ही पुराना बरगद का घना और विशाल पेड़ था। उसके ऊपर कौवों का राजा रहता था। उसी पेड़ के साथ गुफा के पास उल्लुओं का राजा रहता था। इस प्रकार इस वृक्ष पर दो राजा
अपनी प्रजा पर राज्य करते थे। उल्लुओं के राजा ने अपनी प्रजा को आदेश दे रखे थे कि वे रात को जब गफा के बाहर पहरा दें तो जो भी कौवा रात को उन्हें घमता मिले उसे मार डालें।
इस प्रकार कौवा जाति बेचारी मारी जाती रही थी। कौवों के राजा को इस बात की बड़ी चिन्ता हुई। उसने एक दिन अपने मन्त्रियों को बुलाया और उनसे कहा कि यह हमारा शत्रु बड़ा ही भयंकर है। यदि हम इससे बचने का उपाय न करेंगे तो शीघ्र ही हमारी कौम का नाश हो जाएगा। यह तो हम सब जानते हैं कि हम लोग रात को देख नहीं सकते । दिन में हमें यह पता नहीं कि उनकी गुफा कहां है। इसलिए आप लोग यह सोचो कि,हम उनसे सन्धि कर लें अथवा कोई रास्ता निकालें। । तब वे बोले-महाराज ने यह पूछकर ठीक किया है। कहा भी है मन्त्री के लिए उचित यही है कि ऐसे मामले में बिना पूछे ही अपनी राय दे। फिर पूछने पर जो भी सही या गलत हो वह बताए, जो मन्त्री पूछे जाने पर हित की बात करे और इसके बजाए मीठी-मीठी बातें करे वह शत्रु होता है। इसलिए राजा को चाहिए कि एकांत में ले जाकर बात करे।
राजा ने अलग-अलग से अपने पांचों मन्त्रियों से पूछना आरम्भ किया। सबसे पहले मुख्य मंत्री से पूछा, “क्यों मन्त्री जी, ऐसे समय पर आप क्या उचित समझते हैं ?" महाराज ! मेरी नीति तो यही है कि बलवान से लड़ाई नहीं करनी चाहिए। कहा है--प्राण बचाने के लिए हर किसी से सन्धि कर लेनी चाहिए। यदि एक बार प्राण बच जाएं तो फिर सब कुछ हो सकता है । बृहस्पति का कहना है कि यदि युद्ध में विजय सम्भव न हो तो बराबर के शत्रु से भी सुलह कर लेनी चाहिए। साम, दाम और भेद के पश्चात् ही युद्ध दण्ड उचित होता है। भमि, मित्र तथा धन संग्राम से सही तीन फल हैं। यदि इनमें से एक भी नहीं मिलती तो युद्ध न करें। पत्थरों से बने चूहे के बिल को यदि शेर खोदेगा तो या तो उसके दांत टूट जाएंगे, यदि दांत न टूटे तो मिलेगा क्या ? खोदा पहाड़ और निकला चूहा । शक्तिशाली शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिए। इसलिए मेरी राय में सन्धि करने में ही भला है।”इसके पश्चात् काकराज ने उप-मुख्यमन्त्री से पूछा“इसके बारे में आपका क्या विचार है ?"
"महाराज, मेरे विचार में तो सन्धि करना ठीक नहीं है, कहा गया है कि यदि स्वयं झुककर भी सन्धि करना चाहे तो भी सन्धि नहीं करनी चाहिए, म्योंकि गर्म पानी भी आग का धुआं देता है । लोभी अधर्मी से तो भूलकर भी सन्धि नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह पापी होता है । पापी और खोटा मित्र बनकर भी सन्धि को तोड़ देता है । इसलिए ऐसे शत्रु से युद्ध करना चाहिए। ऐसा मेरा विचार है। फिर हम लोग हारे हुए हैं तो हम यदि सन्धि के लिए कहेंगे भी तो वे और क्रोध करेंगे फिर हमें बुजदिल नहीं बनना चाहिए। बड़ों ने कहा है कि हिम्मत और उत्साह से इन्सान बड़े से बड़े शत्रु को हरा देता है। शेर छोटा होने पर भी बड़े हाथी पर राज करता है। जो शत्रु बल से न मारा जाए उसे छल से मार देना चाहिए। जैसे औरत रूप से भीम ने कीचक को भी मारा था।"
इसके पश्चात् काकराज ने तीसरे मन्त्री से पूछा“आपका क्या विचार है मन्त्री जी ?"महाराज, इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह पापी हमसे बहुत शक्तिशाली है, इसलिए उससे सन्धि या युद्ध करना कुछ भी ठीक नहीं । कहा भी गया है बलवान् और सिद्धान्तहीन शत्रु से बिना हमले के युद्ध या सन्धि नहीं करनी चाहिए। विजय की आशा रखने वाले को चाहिए कि शत्रु पर कार्तिक व चैत्र में हमला करे, दूसरे समय नहीं । जब शत्रु किसी संकट में हो अथवा उसमें कोई कमी हो उस समय उस पर चढ़ाई करना ठीक होता है, जो शत्रु के आने-जाने के रास्तों तथा अन्न-जल के भण्डारों को जाने बिना हमला करता है वह कभी वापिस नहीं लौट सकता। फिर राजा ने चौथे मन्त्री से पूछा-“भाई तुम भी अपनी राय दो। उसने कहा कि मझे तो सन्धि, विग्रह, यान यह तीनों ही पसन्द नहीं । मुझे ता कवल आसन ही ठीक लगता है। क्योंकि बुद्धिमान कहते हैं अपने स्थान पर स्थित मगरमच्छ हाथी को भी खींच लेता है । वही अपने स्थान(पानी) से बाहर कत्ते से भी हार जाता है। बलवान से युद्ध होने पर अपने किले में रहकर प्रयत्न करता रहे और अपनी सहायता के लिए मित्रों को बुलाए । जो घबराकर, डर कर अपने स्थान को छोड़ देता है, वह दोबारा उस स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए मेरी सलाह तो आसन ही है। __अब काकराज ने पांचवें मन्त्री की राय पूछी तो वह अपने स्थान से उठकर कहने लगा |
"महाराज ! मुझे तो इन सबकी राय पसन्द नहीं है। मेरे विचार में हमें किसी न किसी मित्र से सहायता लेनी ही होगी। अपनी भसी से अलग होकर चावल नहीं जामते । इसलिए यहां पर रहते हुए आप किसी न किसी
मित्र का सहारा लें, यही मेरी सलाह है।" सब मन्त्रियों की सलाह लेने के पश्चात् काकराज ने सबसे बूढ़े कौवे से पूछा “हे बुजुर्ग, तुम हमारे राज्य में सबसे अधिक आयु के और सबसे अधिक अनुभवी हो। तुमने सब मन्त्रियों की राय तो सुन ली अब अपने विचार सुनाओ।” बूढ़ा कौवा बोला-"महाराज ! इन मन्त्रियों ने जो कुछ भी कहा है वह नीतिशास्त्र के अनुकूल है। यह सब समय-समय के अनुसार ठीक ही है। बड़ों का कहना है कि बलवान शत्रु के साथ सन्धि या विग्रह करके निश्चिन्त नहीं बैठना चाहिए । शत्रु के मन में विश्वास पैदा करके, स्वयं विश्वास न करते हए, लोभ दिखाकर बड़ी आसानी से उसे मारा जा सकता है।""मेरे बुजुर्ग ! मैं आपकी बातों को मानता हूं किन्तु कितने दुःख की बात 7 है कि मैं तो उसका निवास स्थान भी नहीं जानता।”
"महाराज ! यह सारा काम अपने गुप्तचरों से करवाओ, वे लोग वहां जाकर सारे भेद लेकर आएंगे। ब्राह्मण शास्त्रों से देखते हैं, राजा गप्तचरों से देखते हैं और साधारण प्राणी आंखों से देखते हैं । बड़ों ने कहा है जो
राजा अपने गप्तचरों से अपने शत्रुओं की हर चाल को जानता रहता है वह कभी भी नहीं हारता । बूढ़े कौवे ने कहा। "मेरे बज़र्ग ! आप हमें यह सलाह दो कि गप्तचर कैसे भेजें जाएं ? और यह कैसें होने चाहिएं ?” इस बारे में नारद जी ने कहा हैशत्र के 18 तीर्थ और अपने 15 तीर्थ होते हैं।
तीन तीर्थ गुप्तचरों की सहायता से उन्हें जानना चाहिए। यह तीर्थ शब्द शत्र के मारने आदि के कर्म के अर्थ से है। इसलिए स्वपक्ष में तीर्थ ठीक नहीं होता अपने ही नाश का कारण होता है । यदि यह ठीक होता है
तो लाभदायक होता है । वे तीर्थ इस प्रकार हैं-
शत्रु पक्ष के- (1) मन्त्री (2) पुरोहित (3) सेनापति (4) युवराज (5) द्वारपाल (6) अन्तवर्शिक (7) प्रशासन (8) तहसीलदार (9) सन्निधाता (10) प्रदेष्टा (11) ज्ञायक (12) साधनाध्यक्ष (13) गजाध्यक्ष (14) कोषाध्यक्ष (15) दुर्गपाल (16) करपाल (17) सोमध्यक्ष (18) श्रीकट नृत्य। इन 18 कर्मचारियों को तोड़कर अपने साथ मिलाने से शत्रु वश में होता है।
स्वपक्ष के - (1) रानी (2) राजमाता (3) राजब्राह्मण (4) माली (5) शयनापालक (6) स्पशध्यिक्ष (7) सांवत्सरिक (8) भिषक (9) कहार (10) ताम्बलवाहक (11) आचार्य (12) अंगरक्षक (13) स्थान चिन्तक . (14)
छत्रकर (15) वैश्या।
इन पन्द्रह के साथ शत्रुता होने से अपने पक्ष को नुकसान पहुंचाता है। वैद्य, ज्योतिषी और आचार्य-यह जैसे अपने पक्ष की सब बातों को जानते हैं वैसे ही गुप्तचर सपेरों की भांति शत्रुपक्ष की बातें जान जाते हैं।
राजा ने अपने सभी विशेष सहयोगियों की राय जानने के पश्चात उस बूढ़े कौवे ने पूछा, “मेरे पूज्य नाथ ! अब आप यह तो बताओ कि और उल्लुओं से हमारी इस पुरानी शत्रुता का कारण क्या है ?” सुनो महाराज-एक समय हंस, तोता, बगुला, कोयल, चिड़िया, उल्लू, कबूतर, बाज, कठफोरवा आदि सब पक्षियों ने मिलकर आपस में सलाह आरम्भ की कि हमारा राजा गरुड़ है, यह वासदेव का भक्त है, हमारी कोई
चिन्ता नहीं करता, सो ऐसे स्वामी से क्या लाभ जो शिकारियों के जालों में फंसे जाने वाले हम लोगों की रक्षा नहीं करता । इसीलिए कहा है, शत्रु से तंग प्रजा की रक्षा न करने वाला राजा यमराज होता है। राजा के अच्छा न होने पर उसकी प्रजा समुद्र में पतवार रहित नौका के समान इधर-उधर रह जाती है। मनुष्य को चाहिए कि समुद्र में टूटी नाव की भांति सदा उपदेश देने वाले आचार्य, मूर्ख पुरोहित, रक्षा न करने वाले राजा, कड़वा बोलने वाली नारी-इन सबको छोड़ दे अतः विचार करके किसी दूसरे को राजा बनाया जाए। तब उन सबने भद्र उल्लू को देखकर कहा आज से हमारा राजा उल्लू होगा । चलो जाकर राजतिलक का सामान लाओ। तभी राजगद्दी पर बैठाने के सारे प्रबन्ध किए गए। अभी उल्लू राजगद्दी पर बैठने ही लगा था कि उसी समय एक कौवा आ गया, उसे देखकर पक्षियों ने सोचा कि हम सबमें से कौवा बहुत चालाक होता है। कहा भी है मनुष्यों में नाई, पक्षियों में कौवा, दांत वाले जानवरों में गीदड़ और साधुओं में सफेद भिक्षु सबसे अधिक चालाक होते हैं।वहां पहुंचकर कौवा ने पूछा-“अरे भाई, यह काहे की खशियां मनाई जा रही हैं ?"
"भाई कौवे, हम पक्षियों का कोई राजा नहीं है, तो हम इस उल्लू को राजगद्दी पर बैठा रहे हैं। तुम भी जरा अपनी राय दो।" कौवा हंसकर बोला-"भाइयो ! यह बात उचित नहीं है कि कोयल, मोर, हंस, तोता, बुलबुल, हारित, सारिस आदि प्रधान पक्षियों के होते हए इस दिन में अंधे, भयंकर चेहरे वाले को राजा बनाया जाए। इसे मैं नहीं चाहता। क्योंकि यह तो देखने में भी बड़ा भयंकर लगता है। इसे राजा बनाकर भला हमारी क्या इज्जत होगी ? दूसरे, गरुड़ के राजा रहते हुए इसे राजा क्यों बनाया जा रहा है ? यदि गुणवान भी हो तो एक स्वामी के होते हुए दूसरा स्वामी नहीं बनाया जाता । गरुड़ के नाम से शत्रु डर जाते हैं। कहा भी है कि बड़ों के नाम से ही बड़े-बड़े काम सिद्ध हो जाते हैं।" वे बोले–“यह कैसे ?" उसने कहा, लो सुनो