त्याग से स्वर्ग-पंचतंत्र की कहानियां

Apr 05,2021 02:44 AM posted by Admin

किसी जंगल में एक शिकारी रहता था। उसका न तो कोई मित्र था और न ही कोई सगा-सम्बन्धी । बस वह अकेला ही था। जैसे ही वह सुबह उठता शिकार के लिए निकल जाता। एक दिन जंगल में घूमते-घूमते उसे एक कबूतरी मिल गई, शिकारी ने उसे पिंजरे में डाल दिया। अभी वह जंगल में ही घूम रहा था कि चारों ओर से काले बादल आ गए जिनके कारण चारों ओर घोर अंधेरा छा गया। साथ ही तेज़ आंधी आई, वर्षा भी होने लगी।

शिकारी बेचारा डर गया, इस तूफान से बचने के लिए एक बड़े वृक्ष के नीचे जाकर खड़ा हो गया। कितनी देर तक वर्षा होती रही। तूफान तो थम गया, किन्तु साथ ही रात हो गई थी। उसे भूख भी काफी लग आई । वह सोचने लगा कि इस घने जंगल में उसे कोई ऐसा मित्र मिल जाए जिसके पास रहकर वह अपनी रात्रि बिता सके। - उस वृक्ष पर बहुत दिनों से एक कबूतर रहता था। वह अपनी पत्नी के न आने से बड़ा दुःखी था । इस भयंकर तूफान और वर्षा में वह बेचारी न जाने कहां खो गई होगी। उसके बिना तो उसे अपना सारा घर सूना लग रहा था, "घर को घर नहीं करते, बल्कि पत्नी को घर कहते हैं ।" वह रोते-रोते कह रहा था।

पति के मुंह से दर्द भरी बातें सुनकर उस शिकारी के पिंजरे में बंद कबूतरी बहुत संतुष्ट हुई और बोली “वह स्त्री, स्त्री नहीं मानी जाती जिसका पति उससे खुश न हो । यदि पत्नी अपने पति को खुश करती है तो सारे देवता खुश हो जाते हैं । हे पतिदेव ! म तुम्हारे सुख की बात कहती हूं लो सुनो अपने प्राणों पर खेल कर भी घर आए मेहमान की रक्षा करनी चाहिए। सदा का मारा और भूख का सताया यह शिकारी अब तुम्हारी शरण में आया २. अब इसकी रक्षा करो, इसकी इज्जत करो, क्योंकि शाम को घर आए हुए हमान को जो पजा नहीं करता उसको बहत पाप लगता है।" कबूतर बोला, “इस पापी शिकारी ने तुम्हें बंद कर रखा है यह सोचकर क्या मैं इस पर दया करूं?” ।

“यह सब तो मेरे पुराने कर्मों का फल है । दुःख, रोग, बन्धन यह अपने कर्मों के ही फल होते हैं, इसलिए तुम मेरे बन्धन की चिंता को छोड़ो अपना कर्त्तव्य और धर्म का पालन करो।”कबूतर अपनी पत्नी की बात मान उस शिकारी के पास गया और बोला, “भाई मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं, इसलिए मैं आपकी सेवा में कोई कमी नहीं रखूगा। इस घर को तुम अपना ही घर समझो।"


शिकारी कबतूर को देख बड़ा खुश हुआ और प्यार से बोला, “भैया, मुझे इस सर्दी और भूख से बचाओ।" शिकारी की बात सुन कबूतर उड़कर कहीं से एक आग का अंगारा उठा लाया उसे सूखे पत्तों पर रखकर उनमें आग लगा दी। फिर शिकारी से बोला, “लो भाई, अब आप आराम से ताप कर अपनी सर्दी दूर करो।

मुझे तो इस बात का दुःख है कि मेरे पास कोई खाने की चीज़ भी नहीं, जिससे मैं आपकी भूख मिटा सकू, मैं अभागा हूं, जो अपने मेहमान के खाने का प्रबन्ध नहीं कर सकता, उसका घर में रहने का क्या लाभ है। अब तो मैं इस शरीर को भी तुम्हारे अर्पण करके अपने आपको मुक्त करता हूं।" इतनी बात कहकर कबूतर ने आग के चारों ओर चक्कर काटे फिर आग में अपने आपको भूनकर भूखे शिकारी के हवाले कर दिया। कबूतर की इस कुर्बानी को देख शिकारी का मन पिघल गया और वह बोला, जो पाप करता है, उसे उसका फल अवश्य मिलता है और मैं तो जीवन-भर पाप करता रहा हूं। मैं तो अवश्य नर्क में गिरूंगा। इस कबूतर ने अपना मांस अर्पण करके मुझे एक नया रास्ता दिखाया है।

आज से मैं तप करूंगा और अपने शरीर को इस तरह सुखा दूंगा जैसे गर्मी में जल, यह कहकर उस शिकारी ने अपना जाल और लाठी को दूर फेंक दिया, साथ ही पिंजरे में कैद कबूतरों को भी आज़ाद कर दिया। कबूतरी ने अपने पति को उस आग में जले देखा तो वह बहुत ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। दुःख के मारे बिलखती हुई वह भी उसी आग में गिर गई। यह सब कुछ देख शिकारी भी साधु बन गया। फिर भगवान का नाम लेते हए उसने कहा कि यदि वह बेजुबान पक्षी इतना बड़ा त्याग कर सकते हैं तो मैं इंसान होते हुए क्या त्याग नहीं कर सकता ? इतना कहते ही शिकारी भी उसी आग में कूद पड़ा। उसके इस तप और त्याग के बदले में उसे स्वर्ग मिला।

इस कथा को सुनते ही उल्लू राजा बोला कि इस हालत में आप क्या ठीक समझते हैं ?“महाराज, इसे मारना तो चाहिए ही नहीं, क्योंकि जो रोज़ मुझसे घबराती थी, वह प्यार करने लगी है। उसने कहा जो कुछ मेरे पास है ले जा।" “चोर ने कहा था कि तेरे पास तो चुराने योग्य तो कुछ भी नहीं है । फिर कभी आऊंगा।" अरे भाई यह चोर कौन है ? यह बीच में कहां से आ गया ? ज़रा जल्दी से बताओ। लो सुनो