पण्डित और मुर्ख-दादी माँ की कहानी

Apr 06,2021 02:50 AM posted by Admin

दुर्भाग्य से एक पण्डित और एक मूर्ख में गहरी मित्रता हो गई थी। एक बार पण्डित परदेश यात्रा को निकला। मूर्ख भी लम्बी-चौड़ी पगड़ी बांधे हुए उसके साथ निकला। पण्डित को उसकी कोई ज़रूर नहीं नहीं थी,लेकिन वह उसका पीह नहीं छोड़ता था। यह उसके साथ बुरी आदत की तरह लगा हुआ था।

दोनों रास्ते में जा रहे थे। चलते-चलते एकाएक मूर्ख रास्ते में रुक गया। पण्डित ने उसे खड़े देखकर कहा-"क्यों क्या हुआ ? पैर में कोई काँटा तो नहीं चुभ गया।"
मुर्ख बोला-"नहीं महाराज, पैर में तो कोई काँटा नहीं चुभा, लेकिन सिर में एक बड़ा नुकीला काँटा चुभ गया है।"

पण्डित ने इधर-उधर देखा, फिर बोला-'यहाँ तो कोई बबल का पेड़ भी नहीं है, फिर तेरे सिर में काँटा कैसे चुभ गया ?"मूर्ख ने उत्तर दिया- "सुनिये तो, मैं तो एक बड़ा ही पेचीदा सवाल हल करने में लगा हूँ। मेरी समझ में यह नीहं आ रहा है कि मनुष्य के दोनों पैरों में कौन-सा अगला है और कौन-सा पिछळा। महाराज, इसका निर्णय हो जाना चाहिए कि दोनों में नेता कौन है। मैं इस संकट में हूँ कि किसको आगे करूं और किसको पीछे। मेरे लिए दोनों ही बराबर हैं, इसलिए मैं बिना सोचे-समझे एक को आगे बढ़ाकर दूसरे को पीछे नहीं करना चाहता।"पण्डित उसकी पूरी बात सुन गुस्से में बोले-"तू इस तरह आगा-पीछा करतारहेगा तो एक भी कदम नहीं बढ़ेगा। बेकार की बातों में दिमाग क्यों उलझाता है। यह कहकर उसने उसे एक जोर का धक्का दिया, फिर वह चल पड़ा।"शाम होते-होते वे एक शहर में पहुंचे। वहाँ वह एक धर्मशाला में ठहर गये। मूख ने पण्डित जी के प्रति बड़ी कुतज्ञता प्रकट की, क्योंकि उसी की कृपा से उसके रूके हुए पैर फिर चल पड़े थे।उसने पण्डित से कहा-"मित्र, तुमने तो ऐसी तरकीब की कि मेरी फंसी हुई गाड़ी चल पड़ी. नहीं तो मैं ठहर जाता।"

पण्डित ने अपने सिक की ओर इशारा करते हुए कहा-"यह इस दिमाग की करामात है।" मूर्ख बोला-'इसकी क्या विशेषता है ?" पण्डित ने कहा-"यह द्रौपदी की बटलोई है। द्रौपदी जब पाण्डवों के साथ वन को जाने लगी थी तो महार्षि व्यास ने उसे एक सिद्ध बटलोई दी थी। उसमें यह विशेषता थी कि इच्छामात्र में उसमें पका-पकाया भोजन अपने आप आ जाता था। उसी समय भगवान ने संसार-कानन में आने से पहले हमारे कन्धे पर यह बटलोई रख दी है। इससे सब काम सिद्ध होते हैं।" मर्ख बोला-"इस बटलोई को मुझे क्यों नहीं दे देते, मैं तुम्हारा प्रिय मित्र हूँ।"पण्डित बोला-"यह जिसको मिलती है, उसी के काम आती है। तुम चाहो तो मैं तुम्हारे कान में रोज ऐसा मंत्र फूंकता रहूंगा कि तुम कुछ दिनों में ही ज्ञानी बन जाओगे।"मूर्ख बोला-" इस झाड़-फूंक से कुझ नहीं होगा। तुम जो फूंकोगे वह बाहर निकल जाएगा। देखते नहीं, भगवान हर क्षण नाक में हवा फँकता है मगर दूसरे ही क्षण वह बाहर आ जाती है।"मुर्ख की बेसर-पैर की बातें सुनते-सनते पण्डित सो गया। उसके सोने पर मुर्ख साथी को एक मज़ाक सूझी। उसने सोचा कि इसकी 'बटलोई' कहीं छिपा दूँ तो जागने पर जब ये महाशय बड़े चक्कर में बड़ेंगे और चारों ओर उसे ढूंढ़ते फिरेंगे। अपने कन्धे पर एकाएक अपना सिर गायब होते इनके आश्चर्य का ठिकाना न रहेगा, इनकी सारी अक्ल गुम हो जाएगी, यह अपनी बटलोई ढूंढ़ते हुए जब परेशान हो जाएंगे तब बताऊंगा कि तुम्हारी बटलोई वहाँ है। उसे पाकर वे खुश हो जायेंगे।

ऐसा विचार करके उसने पण्डित जी का सिर काटकर दूर एक कोने में छिपा दिया और स्वयं बैठकर उनके जागने का इंतजार करने लगा।जब पण्डित जी नहीं जागे तो उसे ध्यान आया कि सिर कटा साथी तो वैसा का वैसा ही पड़ा है। उसके निर्जीव धड़ को देखते ही वह भय से कांपने लगा। सिर काटते समय उसे ध्यान नहीं था कि बिना सिर का आदमी जागेगा कैसे ? अब उसमें चेताना आई लेकिन अब पछाना बेकार था। सुबह जब धर्मशाला वालों ने खून से लथपथ पण्डित जी के शरीर को देखा तो वे मूर्ख से पूछताछ करने लगे। मूर्ख ने कहा-" हमने तो हंसी की थी। हमें क्या मालूम था कि हंसी-हंसी में मित्र की जान चली जाएगी।" थोड़ी देर बाद सिपाही उसे पकड़ कर ले गए। न्यायालय में उसे मृत्युदण्ड मिला, पण्डित जी तो पहले ही परलोक के रास्ते जा चुके थे। उनके पीछे-पीछे उनका मूर्ख दोस्त भी चला।